08 August 2021 12:05 AM
-रोशन बाफना
अगर आप आलोचना नहीं सहन कर सकते तो आप सार्वजनिक जीवन में अपनी क्षमता अनुरूप प्राप्त नहीं कर सकेंगे। ख़ासकर जब आप भारत जैसे लोकतंत्र में सार्वजनिक जीवन जी रहे हों। आपको ये समझना होगा कि जो संविधान आपको अधिकार दे रहा है, शक्ति दे रहा है वही संविधान आपको कुछ दायित्व भी देता है। दायित्व, जो कहता है कि आप अपनी शक्तियों का दुरुपयोग ना करें। दायित्व, जो कहता है कि आप नागरिकों के अधिकारों का दमन ना करें। अपनी आलोचना सुनकर संयम रखें, आत्मावलोकन करें, सुधार करें। आलोचक को दमन से नहीं स्वयं में सुधार से ही चुप करवाया जा सकता है। अगर आप झल्लाने की बजाय स्वयं में सुधार करते हैं तो आप लोकतंत्र की रक्षा करते हैं।
आजकल देखा जा रहा है कि बहुत से आईएएस, आईपीएस, विधायक, सांसद, मंत्री आदि अपनी आलोचना सुनना ही नहीं चाहते। वे चाहते हैं बस उनकी तारीफें हों। वे जो करें उसे स्वीकार कर लिया जाए। आम आदमी ही नहीं पत्रकार व अधिवक्ता (एडवोकेट) भी इनसे पीड़ित हो रहे हैं। पद के मद में डूबे ये पावरफुल लोग भूल गए हैं कि पद हमेशा नहीं रहेंगे। नौकरी है तो साठ साल बाद सेवानिवृत्त होना होगा। राजनीतिक पद तो हर पांच साल बाद खतरे में आ जाते हैं। आपकी ये धौंस, आपकी ये बदले निकालने की आदतें, सेवानिवृत्ति के बाद की ज़िंदगी को नीरस बना देगी। उस दिन पावर नहीं रहेगी, ना आपसे कोई डरेगा और ना ही कोई आपको पूछेगा। हां, अगर आज आप सही चले, लोगों का दिल जीत गए, आलोचना सुनकर सुधार किया, लोकतंत्र की रक्षा की तो निश्चित है आपकी सेवानिवृत्त ज़िंदगी आज से भी बेहतर होगी। आज से भी अधिक आपका सम्मान होगा। संभव है कि आप मिसाल के तौर पर पेश किए जाएं। लेकिन इसके लिए आपको समझना होगा कि सार्वजनिक जीवन में कुछ भी व्यक्तिगत नहीं होता। आलोचना भी व्यक्तिगत नहीं है, वह तो आपके काम की होती है। ठीक वैसे ही जैसे काम की ही तारीफें होती है।
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