10 December 2020 04:28 PM
-रोशन बाफना
ख़बरमंडी न्यूज़, बीकानेर। हर रोज़ हजारों मरीजों का इलाज़ करने वाली पीबीएम खुद बीमार है। कभी कभी पीबीएम की यह बीमारी असाध्य प्रतीत होती है। पीबीएम की इस नई बीमारी की वजह से गरीब लुट रहे हैं। मामला एबीजी नाम की अतिमहत्वपूर्ण जांच की मशीन से जुड़ा है। कोविड काल में इस मशीन की जरूरत कई गुना बढ़ गई है। दरअसल, फेफड़ों से संबंधित परेशानियों में एबीजी जांच कर मरीज़ की वास्तविक स्थिति का पता लगाया जाता है। इसी जांच के आधार पर तय किया जाता है कि मरीज़ को ऑक्सीजन सिलेंडर, बाईपेप व वेंटिलेटर में से किस माध्यम की आवश्यकता है।
इस जांच की सरकारी रेट चार सौ रूपए निर्धारित है, जिसमें भी कोविड मरीज, सीनियर सिटीजन, 1 माह तक का नवजात, 1 माह तक की प्रसूता, विकलांग, लावारिस, रोड एक्सीडेंट के घायल सहित अधीक्षक द्वारा रिकमंड किए गए जरूरत मंद मरीज़ों के लिए यह जांच मुफ्त में होती है। लेकिन बाहरी लैब यही जांच एक हजार में करते हैं। इसके अतिरिक्त लैब से जांच करने अस्पताल आने वाला कर्मचारी सौ रूपए अलग से ले लेता है। ऐसे में एबीजी जांच करवाने में मरीज़ को 1100 रूपए का खर्चा आता है। यानी हर रोज़ मुफ्त केटेगरी वाले मरीजों को 1100 रूपए प्रति मरीज़ व सामान्य केटेगरी वाले मरीजों को सात सौ रूपए प्रति मरीज़ की चपत लगती है। हर रोज सैकड़ों गरीबों के इस आर्थिक शोषण का जिम्मेदार बीमार पीबीएम प्रशासन है।
अधिकृत सूत्रों के मुताबिक पीबीएम के टीबी अस्पताल, कार्डियोलॉजी डिपार्टमेंट, बच्चा अस्पताल व मेडिसिन आईसीयू में मिलाकर कुल पांच मशीनें खराब पड़ी हैं। पांच इसलिए कि मेडिसिन आईसीयू में एक मशीन पहले ही खराब हो गई थी, तब उसे ठीक करवाने की बजाय एक नई मशीन खरीद ली गई। वहीं जब तीन अन्य डिपार्टमेंट की मशीनें भी खराब हो गईं तब सारा भार मेडिसिन आईसीयू के कांधों पर लाद दिया गया। यहां तक कि कोविड अस्पताल के मरीजों की एबीजी जांच भी यहीं हो रही थी। लेकिन अब पांचवीं मशीन भी खराब हो गई। सूत्रों के मुताबिक इन मशीनों के खराब रहने का सीधा फायदा प्राइवेट लैबों को होता है। हालांकि यह फायदा कुल चार-पांच लैबों को ही होता है। वहीं हर रोज गरीब अपनी मजबूरी की वजह से यहां लुटता है।
बताया जा रहा है कि पीबीएम प्रशासन अब यह मशीनें ठीक नहीं करवाना चाहता। बल्कि करीब पांच लाख रूपए प्रति मशीन लागत की नई मशीनें लाने की तैयारी पूरी कर चुका है। जानकारों का कहना है कि मशीन ठीक करवाने से काम बन जाएगा। लेकिन ठीक करवाने पर कमीशन नहीं बनता बल्कि नई खरीद पर अच्छा कमीशन बनता है। बताया जा रहा है कि अगर पांच मशीनें भी खरीदी गई तो उनकी कुल कीमत करीब बीस-पच्चीस लाख होनी चाहिए।
सवाल यह है कि मशीनें ठीक ना करवाके प्राइवेट लैबों को फायदा पहुंचाने के पीछे क्या कारण हैं??
ठीक हो सकने वाली मशीनों को कबाड़ बनाकर नई मशीनें खरीदने में किसका फायदा है?
जबकि साफ है कि ये मशीनें सुचारू रहे तो गरीबों व जरूरतमंदों को फायदा होगा, साथ ही साथ रिलीफ सोसायटी को भी चार सौ रूपए प्रति जांच के हिसाब से आय होती रहेगी।
इसके अतिरिक्त इमरजेंसी में मरीज़ की जांच भी कम समय में की जा सकेगी।
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